प्रभु का सच्चा स्मरण उसके गुणों को अपनाना है

🚩‼️ओ३म्‼️🚩

🕉️🙏नमस्ते 🙏
🌷 🙏 डॉ जसवंत शास्त्री 🙏 🌷
दिनांक – – २० जून २०२५ ईस्वी

दिन – – शुक्रवार 🌗 तिथि -- नवमी ( ९:४९ तक तत्पश्चात दशमी )

🪐 नक्षत्र – – रेवती ( २१:४५ तक तत्पश्चात अश्विनी )

पक्ष – – कृष्ण
मास – – आषाढ़
ऋतु – – ग्रीष्म
सूर्य – – उत्तरायण

🌞 सूर्योदय – – प्रातः ५:२४ पर दिल्ली में
🌞 सूर्यास्त – – सायं १९:२२ पर
🌗 चन्द्रोदय — २५:२९ पर
🌗 चन्द्रास्त – – १३:५६ पर

सृष्टि संवत् – – १,९६,०८,५३,१२६
कलयुगाब्द – – ५१२६
विक्रम संवत् – -२०८२
शक संवत् – – १९४७
दयानंदाब्द – – २०१

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🚩‼️ओ३म्‼️🚩

🔥ईश्वर-महिमा!!!
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🔥 ओ३म् होता यक्षत्प्रजापतिंसोमस्य महिम्नः।जुषतां पिबतु सोमंहोतर्यज।।

शब्दार्थ:-(होता) होता (सोमस्य) ज्ञान और ऐश्वर्य की (महिम्नः) महिमा से (प्रजापतिम्) प्रजापति परमेश्वर की (यक्षत्) आराधना करे,पूजा करे और (जुषताम्) उसका प्रीतिपूर्वक सेवन करे तथा (सोमम्) ज्ञान,ऐश्वर्य,शान्ति और आध्यात्मिक आनन्द का (पिबतु) पान करे।हे (होतः) होता=भगवद्भक्त (यज) तू यजन कर।

इस मन्त्र में प्रभु ने अपने पूजन,अपनी उपासना की विधि भी स्वयं बता दी है।भक्त को चाहिए कि वह भगवान् के अनन्त ऐश्वर्य,विपुलज्ञान और अखण्डशक्ति का चिन्तन करें।

जब कोई शिल्पी किसी वस्तु का निर्माण करने लगता है तो उसके निर्माण का ज्ञान पहले ही कर लेता है।इस विशाल ब्रह्माण्ड का रचयिता कितना बड़ा ज्ञानी है इसकी कल्पना करते-करते मनुष्य का मस्तिष्क चक्कर खाने लगता है।

कितना विशाल है यह संसार।यह सृष्टि इतनी विशाल है कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक आज तक इसकी माप-तोल नहीं कर पाये और न भविष्य में कर पाएँगे।सैकड़ों और सहस्रों व्यक्तियों ने इसकी माप-तोल में जीवन खपा दिये,परन्तु वे इसका पार न पा सके।

यह पृथिवी कितनी विस्तृत है,इसमें कहाँ-कहाँ क्या-क्या रत्न छिपे हुए हैं,यह अभी भी अज्ञात है।समुद्र की गहराई का पता लगाना तो दूर की बात है,अभी तक तो वैज्ञानिक मानसरोवर झील की गहराई को मापने में भी असमर्थ रहे हैं।यह विस्तृत आकाश भी वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती के रुप में स्थित है।वैज्ञानिक अथक प्रयत्न करके अभी तक दो अरब सौर-मण्डलों का ही पता लगा पाये हैं।जितनी बड़ी दूरबीन बनती जाती है उतने ही अधिक नक्षत्र दिखाई देने लगते हैं।इस संसार की विशालता और महत्ता का विचार करते-करते मनुष्य की बुद्धि थक जाती है।इस सृष्टि की विशालता से ही ईश्वर के सामर्थ्य आदि के विषय में भी समझ लेना चाहिए।यह प्रभु का ही सामर्थ्य है कि उसने अरबों और खरबों लोक-लोकान्तरों को धारण किया हुआ है।वह अकेला ही अपनी अनन्त शक्ति से इस सारे ब्रह्माण्ड को व्यवस्थित रुप में चला रहा है।उसकी व्यवस्था इतनी सुन्दर है कि ये लोक आपस में टकराकर नष्ट नहीं हो जाते।

जुषताम्- प्रजापति के गुणों का चिन्तन करके इन गुणों का सेवन करना चाहिए।प्रभु का सच्चा नाम-स्मरण क्या है,यह महर्षि दयानन्द के शब्दों में पढ़िए-नाम-स्मरण इसको कहते हैं कि-यस्य नाम महद्यशः (यजु० ३२/३) परमेश्वर का नाम बड़े यश,अर्थात् धर्मयुक्त कामों का करना है।जैसे ब्रह्म,परमेश्वर,ईश्वर,न्यायकारी,दयालु,सर्वशक्तिमान् आदि नाम परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव से हैं।जैसे 'ब्रह्म' सबसे बड़ा,'परमेश्वर' ईश्वरों का ईश्वर,'ईश्वर' सामर्थ्य युक्त,'न्यायकारी' कभी अन्याय नहीं करता,'दयालु' सब पर कृपादृष्टि रखता,'सर्वशक्तिमान्' अपने सामर्थ्य ही से सब जगत् की उत्पत्ति,स्थिति,प्रलय करता,सहाय किसी का नहीं लेता,'ब्रह्मा' विविधजगत् के पदार्थों का बनाने हारा,'विष्णु' सबमें व्यापक होकर रक्षा करता,'महादेव' सब देवों का देव,'रुद्र' प्रलय करने हारा आदि नामों के अर्थों को अपने में धारण करे,अर्थात् बड़े कामों में बड़ा हो,समर्थों में समर्थ हो,सामर्थ्य को बढ़ाता जाए,अधर्म कभी न करे,शिल्पविद्या में नाना प्रकार के पदार्थों को बनावे,सब संसार में अपने आत्मा के तुल्य सुख-दुःख समझे,सबकी रक्षा करे,विद्वानों में विद्वान् होवे,दुष्टकर्म और दुष्ट कर्म करने वालों को प्रयत्न से दण्ड और सज्जनों की रक्षा करे।इस प्रकार परमेश्वर के नामों का अर्थ जानकर परमेश्वर के गुण,कर्म,स्वभाव के अनुकूल अपने गुण,कर्म,स्वभाव को करते जाना ही परमेश्वर का नामस्मरण है।"-स० प्र० एकादशसमुल्लास प्रभु के इन और इस प्रकार के गुणों का सेवन करना चाहिए और सेवन भी निरन्तर,दीर्घकालपर्यन्त और श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।

महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः।।-(यो० द० १/१४) तप,ब्रह्मचर्य और श्रद्धापूर्वक जब प्रभु की उपासना निरन्तर और बहुत समय तक की जाती है तब वह अभ्यास जड़ पकड़ पाता है,दृढ़ हो जाता है। सोमं पिबतु-अनादर,अनास्था से किया चिंतन कुछ भी लाभ नहीं देता।जब ईश्वर के साथ प्रिति करोगे,उसे प्राप्त करने के लिए आपके ह्रदय में उत्कण्ठा और तड़प होगी,तब आपल उसके अनन्त ऐश्वर्य का उसके आध्यात्मिक-आनन्द का पान कर सकोगे।इसीलिए मन्त्र के अन्त में प्रेरणा दी-

होतर्यज्ञ-हे होतः।यजन कर।यजन का अर्थ बहुत विस्तृत है।सङ्गतीकरण,देवपूजा,दान आदि सारे भाव यजन के अन्दर आ जाते हैं।श्रेष्ठपुरुषों की सङ्गति,पदार्थों का यथार्थ उपयोग,विद्या,धन आदि का दान,विद्वानों,अतिथियों,सन्यासियों का सत्कार,ज्ञान आदि के द्वारा परमात्मा की उपासना आदि-सब भाव यज्ञ के अन्तर्गत आ जाते हैं।इसलिए वेद में कहा है-‘आयुर्यज्ञेन कल्पताम्'(यजु० १८/२९)
जीवन को यज्ञमय बनाओ।यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है,अतः हमारा सब समय शुभ कर्मों में व्यतीत हो।

होता का अर्थ है-देने वाला तथा लेने वाला।यज्ञ कराने वाले होता में भी दो गुण अवश्य होते हैं।केवल लेने वाले ही न बनो,अपितु देना भी सीखो।यह भाव ‘होता’ शब्द के अन्दर है।जिस प्रकार तालाब आदि में जल आता और जाता रहने से दूषित नहीं होता,वह शुद्ध और पवित्र बना रहता है,इसी प्रकार दान और आदान दोनों के पालन करने से मनुष्य का जीवन श्रेष्ठ और पवित्र बना रहता है।

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